Friday, January 6, 2012

हम सरहद पर मरते हैं



बांध कफ़न सर पर, हम सरहद पर खड़े होते है,
हम सरहद पर मरते हैं, वो घर से भी निकलने से डरते हैं / 

चलते हैं हम कभी बर्फीली वादियों में,कभी कंटीले पथरीली राहों पर 
शर्म नहीं आती उनको, वो चलते हैं महँगी कारों में /    

याद जब आती है घर की, दोस्त समझ जाते है 
रोकना चाहें लाख, पर आसूं तो निकल हीं आते हैं / 

उन्हें आहट भी नहीं इसकी, हम कितने बेचैन हो जाते है ,
कभी संसद को घर बना देते हैं, कभी मंदिर को संसद में ले आते हैं /

हम सोते नहीं यहाँ ताकि वो चैन से सो पाएं
वो घर में एसी का मजा तो लेते हीं हैं, संसद में भी सो जाते हैं 
अपनी राजनितिक पुलाव पकाने के लिए हमें  हीं दोषी ठहरा जाते हैं /   

बांध कफ़न सर पर हम सरहद पर खड़े होते है,
हम सरहद पर मरते हैं, वो घर से भी निकलने से डरते हैं /


                                                                            राज सिंह 





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